"पंचायत" की सबसे बड़ी जीत: जब पितृसत्ता और सौम्य मर्दानगी एक साथ दिखे
‘पंचायत’ सिर्फ एक मनोरंजक कहानी नहीं है; यह पुरुषों और महिलाओं की सामाजिक भूमिकाओं पर भी स्पष्ट टिप्पणी है।
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हालाँकि, घर में हालात अलग हैं। मंजू देवी न केवल पुरी खिलाती हैं, बल्कि तर्क और व्यंग्य भी करती हैं। यही "प्रधानपति" मंजू के विचारों से प्रभावित होकर महत्वपूर्ण निर्णय लेने में उनकी सलाह लेने लगता है— शो का असली सौंदर्य यह बदलाव है।अभिषेक, प्रधानजी, प्रह्लाद और विकास जब साथ होते हैं, तब ‘पंचायत’ सबसे ज़्यादा दिल छू लेने वाला होता है। ये लोग न तो ज़्यादा गालियां देते हैं, न औरतों को नीचा दिखाते हैं, और न ही ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसी बातों पर विश्वास करते हैं। बल्कि ये दोस्त एक-दूसरे के सामने अपनी कमज़ोरियां और दुख खुलकर ज़ाहिर करते हैं।
जब प्रह्लाद का बेटा सीमा पर शहीद होता है, तो ये तीनों दोस्त उसके साथ बैठकर चुपचाप उसका हाथ पकड़ते हैं, उसका खाना-पीना सुनिश्चित करते हैं और तब तक उसका साथ देते हैं जब तक वह दोबारा मुस्कुराना नहीं सीख लेता।
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एक दृश्य में जब अभिषेक कहता है कि उसका गांव में कोई दोस्त नहीं है, तो ये तीनों दोस्त उसे बीयर पिलाने ले जाते हैं और 'HI' नाम का एक WhatsApp ग्रुप बनाते हैं, जिसमें कोई भी अकेलापन महसूस कर रहा हो तो सिर्फ "Hi" लिखकर बाकी दोस्तों को बुला सकता है।
मर्दानगी कई बार व्यंग्यात्मक रूप से व्यक्त की जाती है। शादी के एक एपिसोड में दूल्हा पूरे पंचायत कार्यालय को बर्बाद करने की कोशिश करता है, लेकिन अंततः वही दूल्हा शर्म से लाल हो जाता है। वहीं, मारपीट वाले सीन्स में कोई हीरो लड़ने के लिए नहीं आता— सबको दर्द होता है, चोट लगती है और उसे महसूस करते हैं। "मर्द को दर्द नहीं होता" की गलत धारणा को यह तोड़ देता है।
शो में कुछ बुरे आदमी भी हैं, जैसे स्थानीय विधायक चंद्रकिशोर सिंह या नया पुलिसकर्मी जो पंचायत कार्यालय की चोरी के बाद आता है। इन पात्रों के माध्यम से हमें याद दिलाया जाता है कि हालांकि बदलाव अभी नहीं हुआ है, उम्मीद अभी भी जीवित है।
निष्कर्ष: बदलाव की बयार
'पंचायत' कोई आदर्श समाज की कल्पना नहीं करता, बल्कि दिखाता है कि कैसे छोटे-छोटे बदलाव एक पितृसत्तात्मक समाज में भी उम्मीद जगा सकते हैं। यह शो मर्दों को केवल ताकतवर नहीं, बल्कि भावुक, संवेदनशील और गलतियों से सीखने वाला इंसान भी दिखाता है।
सीज़न 4 का इंतज़ार इसलिए नहीं कि कहानी आगे कैसे बढ़ेगी, बल्कि इसलिए भी कि क्या फुलेरा के ये लोग और भी मानवीय और संवेदनशील बन पाएंगे? क्या मंजू देवी और अभिषेक की सोच गांव की अगली पीढ़ी को बेहतर दिशा दे पाएगी?




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