भारत की 'Rare Earth' डिप्लोमेसी: चीन के दबदबे को चुनौती देने की नई कूटनीति
नई दिल्ली – जब दुनिया का ध्यान इस समय इज़राइल-ईरान तनाव, मध्य पूर्व की अस्थिरता और अहमदाबाद के दुखद विमान हादसे पर है, तब भारत एक अलग ही युद्धभूमि पर शांतिपूर्वक मोर्चा संभाले हुए है — यह युद्ध हथियारों या मिसाइलों का नहीं, बल्कि "रेयर अर्थ मैग्नेट्स" का है।
ये दुर्लभ तत्व हमारे स्मार्टफोन से लेकर इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs), ड्रोन, मिसाइल और रक्षा प्रणालियों में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन इन पर चीन का 90% से अधिक वैश्विक नियंत्रण है। भारत अब इस निर्भरता को खत्म करने की कूटनीति में जुट चुका है — और यह सिर्फ आत्मनिर्भरता की बात नहीं, बल्कि राष्ट्र की तकनीकी संप्रभुता (Technological Sovereignty) का सवाल बन चुका है।
क्या हैं Rare Earth Magnets और क्यों हैं इतने जरूरी?
रेयर अर्थ मैग्नेट्स — विशेष रूप से Neodymium और Dysprosium — वे अदृश्य शक्तियाँ हैं जो आधुनिक टेक्नोलॉजी को गति देती हैं। EV मोटर्स, हाई-स्पीड टर्बाइन्स, डिफेंस रडार, मोबाइल फोन और यहां तक कि गाइडेड मिसाइलों में इनका उपयोग होता है।
इनकी मांग वैश्विक स्तर पर लगातार बढ़ रही है, लेकिन अधिकांश सप्लाई पर चीन का एकाधिकार है। यही कारण है कि भारत ने अब इस क्षेत्र में रणनीतिक रूप से प्रवेश किया है।
उच्चस्तरीय अंतर-मंत्रालयी बैठकें
हाल ही में एक अंतर-मंत्रालयी बैठक केंद्रीय मंत्री एच. डी. कुमारस्वामी और केंद्रीय कोयला मंत्री जी. किशन रेड्डी की अध्यक्षता में हुई, जिसमें भारी उद्योग, इस्पात, खनन, वाणिज्य और परमाणु ऊर्जा विभागों के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए।
बैठक का उद्देश्य था – चीन के वर्चस्व को तोड़ना और भारत की घरेलू क्षमता को तेजी से विकसित करना। कुमारस्वामी ने कहा:
"यह साझा प्रयास भारत को उन रणनीतिक क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाएगा जो इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा और ईवी सेक्टर के लिए जरूरी हैं।"
🔬 IREL और BARC की बड़ी भूमिका
इस योजना के केंद्र में हैं —
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IREL (Indian Rare Earths Limited)
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BARC (Bhabha Atomic Research Centre)
भारत का लक्ष्य केवल इन तत्वों का खनन करना नहीं है, बल्कि उन्हें उच्च गुणवत्ता वाले मैग्नेट्स में प्रोसेस कर व्यावसायिक स्तर पर उत्पादित करना है — एक ऐसा काम जो अधिकांश देश नहीं कर पाते, लेकिन चीन इसमें महारथी है।
चीन ने कैसे दिखाया ताकत?
अप्रैल 2025 में चीन ने रेयर अर्थ निर्यातों पर नियंत्रण और सख्त कर दिया, जिससे वैश्विक उद्योग जगत हिल गया। भारत की ऑटो और इलेक्ट्रॉनिक्स इंडस्ट्री पर इसका गहरा असर पड़ा।
लेकिन भारत का जवाब तुलनात्मक रूप से शांत लेकिन सटीक है। विदेश मंत्रालय (MEA) अब ट्रेड से आगे बढ़कर स्ट्रैटेजिक डायलॉग में जुड़ चुका है, और चीन से पारदर्शिता की मांग कर रहा है।
भारत की नई कूटनीतिक रणनीति: चीन का विकल्प बनाना
MEA अब यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और मध्य एशिया जैसे देशों से संपर्क कर रहा है — जो खुद भी चीन के प्रभुत्व से चिंतित हैं। यह न तो कोई हेडलाइन बनाने वाली डील है और न कोई चमकदार शिखर सम्मेलन।
बल्कि ये हैं —
✅ जॉइंट वेंचर
✅ तकनीकी साझेदारी
✅ संसाधन खोज और
✅ भरोसेमंद वैकल्पिक सप्लाई चेन तैयार करने के शांत लेकिन प्रभावी प्रयास।
भू-राजनीति नहीं, भू-रसायन की लड़ाई
एक वरिष्ठ IAS अधिकारी के अनुसार, यह सिर्फ भूराजनीति की नहीं, "भू-रसायन की कूटनीति" है। यह सब कुछ पीएम मोदी के "आत्मनिर्भर भारत" और "विकसित भारत 2047" विजन का हिस्सा है।
भारत अब केवल तूफान का सामना नहीं कर रहा, वह अपनी नाव खुद बना रहा है।
📌 निष्कर्ष
भारत की 'Rare Earth Diplomacy' अब एक शांत क्रांति की तरह उभर रही है — जिसमें हथियार नहीं, बल्कि टेक्नोलॉजी, विज्ञान और रणनीति के जरिए भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित की जा रही है। यह चीन के दबदबे को चुनौती देने का भारत का आत्मविश्वास भी है और अपनी भू-सामरिक क्षमता को फिर से परिभाषित करने की दिशा में एक ठोस कदम भी।

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